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बुलबुल गुलों से देख के तुझ को बिगड़ गया | शाही शायरी
bulbul gulon se dekh ke tujhko bigaD gaya

ग़ज़ल

बुलबुल गुलों से देख के तुझ को बिगड़ गया

हैदर अली आतिश

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बुलबुल गुलों से देख के तुझ को बिगड़ गया
क़ुमरी का तौक़ सर्व की गर्दन में पड़ गया

चीं-बर-जबीं न ऐ बुत-ए-चीं रह ग़ुरूर से
तस्वीर का है ऐब जो चेहरा बिगड़ गया

आई तो है पसंद उसे चाल यार की
सुन लीजो पाँव कब्क-ए-दरी का उखड़ गया

पीछे हटा न कूचा-ए-क़ातिल से अपना पाँव
सर से तड़प के चार क़दम आगे धड़ गया

खींची जो मेरी तरह से कुमरी ने आह-ए-सर्द
जाड़े के मारे सर्व चमन में अकड़ गया

शीरीं के शेफ़्ता हुए परवेज़-ओ-कोहकन
शाएर हूँ मैं ये कहता हूँ मज़मून लड़ गया

अल्लाह-रे शौक़ अपनी जबीं को ख़बर नहीं
उस बुत के आस्ताने का पत्थर रगड़ गया

दरमाँ से और दर्द हमारा हुआ दो-चंद
मरहम से दाग़ सीने में नासूर पड़ गया

गुलदस्ता बन के रौनक़-ए-बज़्म-ए-शहाँ हुआ
कूड़ा जो उस फ़क़ीर के तकिए से झड़ गया

निकला न जिस्म से दिल-ए-नालाँ शरीक-ए-रूह
मंज़िल में रंग नाक़ा से अपने बिछड़ गया

पहुँचा मजाज़ से जो हक़ीक़त की कुनह को
ये जान ले कि रास्ते में फेर पड़ गया

फ़ुर्क़त की शब में ज़ीस्त ने अपनी वफ़ा न की
क़ब्ल-ए-सहर चराग़ हमारा न बढ़ गया

पाता हूँ शौक़-ए-वस्ल में अहबाब की कमी
हुस्न-ओ-जमाल-ए-यार में कुछ फ़र्क़ पड़ गया

लाशों को आशिक़ों के न उट्ठो गली से यार
बसने का फिर ये गाँव नहीं जब उजड़ गया

देखा तुझे जो ख़ून-ए-शहीदाँ से सुर्ख़-पोश
तुर्क-ए-फ़लक ज़मीं में ख़जालत से गड़ गया

बरसों की राह आ के अज़ीज़ाँ निकल गए
अफ़सोस कारवाँ से मैं अपने बिछड़ गया

आया जो शरह-ए-लाल-ए-लब-ए-यार का ख़याल
झंडा क़लम का अपने बदख़्शाँ में गड़ गया

मैं नय लिया बग़ल में परी-रू विसाल को
देव-ए-फ़िराक़ कश्ती में मुझ से बिछड़ गया

'आतिश' न पूछ हाल तू मुझ दर्द-मंद का
सीने में दाग़ दाग़ में नासूर पड़ गया