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बुलबुल-ए-रंगीं-नवा ख़ामोश है | शाही शायरी
bulbul-e-rangin-nawa KHamosh hai

ग़ज़ल

बुलबुल-ए-रंगीं-नवा ख़ामोश है

अमजद नजमी

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बुलबुल-ए-रंगीं-नवा ख़ामोश है
बाग़ की सारी फ़ज़ा ख़ामोश है

गुल खिलाए उस ने क्या क्या बाग़ में
फिर भी किस दर्जा सबा ख़ामोश है

आरज़ू जिन की थी मुझ को मिल गए
अब ज़बान-ए-इल्तिजा ख़ामोश है

बे-कसी ये किस ने ली तेरी पनाह
गोर का किस की दिया ख़ामोश है

शोरिश-ए-दिल शोरिश-ए-महशर नहीं
ज़िंदगी अपनी भी क्या ख़ामोश है

सोचती है जा के ये बरसे कहाँ
मेरे अश्कों की घटा ख़ामोश है

किस को जीने की तमन्ना है यहाँ
क्यूँ लब-ए-मोजिज़-नुमा ख़ामोश है

हुस्न-ए-दिलकश का भी क्या अंदाज़ है
नाज़ गोया है अदा ख़ामोश है

है यहाँ 'नजमी' उसी का शोर-ओ-ग़ुल
गो ब-ज़ाहिर वो सदा ख़ामोश है