बुलंद-ओ-पस्त में मंज़िल हमें कहीं न मिली
जो आसमान से नाज़िल हुए ज़मीं न मिली
गिला नहीं कि तिरा संग-ए-आस्ताँ न मिला!
ये है कि दीदा-ए-तर को वो आस्तीं न मिली
कभी जो शाना-ए-उक़्दा-कुशा नसीब हुआ
तो उस की ज़ुल्फ़-ए-गिरह-गीर ओ अम्बरीं न मिली
बजा कि जान-ए-ज़ुलेख़ा थे मिस्र में यूसुफ़
मगर जो बात थी कनआँ में वो कहीं न मिली
मिले जो अर्श पे ख़ुल्द-ए-बरीं तो क्या हासिल?
कि इस ज़मीं पे हमें जन्नत-ए-ज़मीं न मिली
'रईस' दाद ख़ुदावंद-ए-आफ़रीनश को!
अगर मिली तो ब-जुज़ हर्फ़-ए-आफ़रीं न मिली
ग़ज़ल
बुलंद-ओ-पस्त में मंज़िल हमें कहीं न मिली
रईस अमरोहवी