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बुलंद-ओ-पस्त में मंज़िल हमें कहीं न मिली | शाही शायरी
buland-o-past mein manzil hamein kahin na mili

ग़ज़ल

बुलंद-ओ-पस्त में मंज़िल हमें कहीं न मिली

रईस अमरोहवी

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बुलंद-ओ-पस्त में मंज़िल हमें कहीं न मिली
जो आसमान से नाज़िल हुए ज़मीं न मिली

गिला नहीं कि तिरा संग-ए-आस्ताँ न मिला!
ये है कि दीदा-ए-तर को वो आस्तीं न मिली

कभी जो शाना-ए-उक़्दा-कुशा नसीब हुआ
तो उस की ज़ुल्फ़-ए-गिरह-गीर ओ अम्बरीं न मिली

बजा कि जान-ए-ज़ुलेख़ा थे मिस्र में यूसुफ़
मगर जो बात थी कनआँ में वो कहीं न मिली

मिले जो अर्श पे ख़ुल्द-ए-बरीं तो क्या हासिल?
कि इस ज़मीं पे हमें जन्नत-ए-ज़मीं न मिली

'रईस' दाद ख़ुदावंद-ए-आफ़रीनश को!
अगर मिली तो ब-जुज़ हर्फ़-ए-आफ़रीं न मिली