बुझती हुई आँखों की उमीदों का दिया हूँ
मैं तेज़ हवाओं की हथेली पे रखा हूँ
मैं अपनी ही आवाज़ की पहचान में गुम हूँ
तन्हाई के सहरा में दरख़्तों की सदा हूँ
मैं रोज़ निकल पड़ता हूँ अनजाने सफ़र पर
मंज़िल के क़रीब आ के भी मंज़िल से जुदा हूँ
हर सुब्ह नए कर्ब के चेहरों से मुलाक़ात
हर शाम बिछड़ने का सबब पूछ रहा हूँ
ये ख़ून में डूबे हुए मासूम फ़रिश्ते
ख़ामोश लरज़ते हुए होंटों की दुआ हूँ
इस दर्जा हूँ सहमा हुआ सूरज की तपिश से
गिरती हुई दीवार के साए में खड़ा हूँ
एे ख़ाक-ए-वतन अब तो वफ़ाओं का सिला दे
मैं टूटती साँसों की फ़सीलों पे खड़ा हूँ
पलकों पे सजाए हुए सच्चाई की शमएँ
ना-कर्दा गुनाहों की सज़ा काट रहा हूँ
दस्तार सलामत न रिदाएँ न क़बाएँ
हर लम्हा सुलगते हुए ख़्वाबों की चिता हूँ
ग़ज़ल
बुझती हुई आँखों की उमीदों का दिया हूँ
जावेद अकरम फ़ारूक़ी