बुझी बुझी है सदा-ए-नग़्मा कहीं कहीं हैं रबाब रौशन
ठहर ठहर के गिरे हैं आँसू बिखर बिखर के हैं ख़्वाब रौशन
सवाल मबहूत से खड़े हैं कि जैसे सीनों में दिल नहीं हैं
उफ़ुक़ के उस पार जा के देखो शिकस्ता मुज़्तर जवाब रौशन
वो बेकसी है कि अल-अतश की सदाएँ ख़ामोश हो गई हैं
कहाँ है कोई हुसैन यारो कि हर तरफ़ है सराब रौशन
अजीब ग़मनाक हैं हवाएँ लहू लहू है फ़ज़ा-ए-गंगा
तड़पती मौजें शिकस्ता कश्ती बुझे दिए और हबाब रौशन
ग़ुलाम गर्दिश में है अँधेरा है दम-ब-ख़ुद सुर्ख़ सा सवेरा
कफ़न पहन कर निकल चुके हैं ग़रीब 'बाक़र' नवाब-रौशन
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ग़ज़ल
बुझी बुझी है सदा-ए-नग़्मा कहीं कहीं हैं रबाब रौशन
बाक़र मेहदी