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बुझाई आग तो रौशन हुआ धुआँ सा कुछ | शाही शायरी
bujhai aag to raushan hua dhuan sa kuchh

ग़ज़ल

बुझाई आग तो रौशन हुआ धुआँ सा कुछ

हमदम कशमीरी

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बुझाई आग तो रौशन हुआ धुआँ सा कुछ
हमारे हाथ में आया है राएगाँ सा कुछ

क़दम क़दम पे धड़कता है दिल उमीदों का
क़दम क़दम पे है दर-पेश इम्तिहाँ सा कुछ

कहीं पे नक़्स मिले और कोई बात बने
वो ढूँडते हैं मिरे सूद में ज़ियाँ सा कुछ

वही तो बन गया बाइ'स गिरानी-ए-जाँ का
रखा था घर में कहीं पर जो ख़ानुमाँ सा कुछ

अब उस के बा'द मुकम्मल है दास्तान-ए-हुनर
इधर-उधर में बिठाया है दरमियाँ सा कुछ

कोई सराब नहीं है ये मेरी ख़ुश-नज़री
जो दश्त में नज़र आता है गुलिस्ताँ सा कुछ

हमारे नाम वो मंसूब हो गया क्यूँ कर
ज़मीं पे टूट पड़ा था जो आसमाँ सा कुछ

अब उस की शहर में तश्हीर क्यूँ करें जा कर
हुआ है गाँव में अपने जो ना-गहाँ सा कुछ