बुझाएँ प्यास कहाँ जा के तेरे मस्ताने
जो साक़िया दर-ए-मय-ख़ाना तू न बाज़ करे
नहीं वो लज़्ज़त-ए-आज़ार-ए-इश्क़ से आगाह
सितम में और करम में जो इम्तियाज़ करे
उन्हीं के हुस्न से है गर्म इश्क़ का बाज़ार
दुआ ख़ुदा से है उम्र-ए-बुताँ दराज़ करे
ख़ुदा का नाम भी लो बाज़ुओं से काम भी लो
तू फ़िक्र-ए-कार-ए-ख़ुदावंद-ए-कार-साज़ करे
हवा-ओ-हिर्स से 'नाज़िर' रहे जो पाक नज़र
तो हम-सरी न हक़ीक़त की क्यूँ मजाज़ करे
ग़ज़ल
बुझाएँ प्यास कहाँ जा के तेरे मस्ताने
ख़ुशी मोहम्मद नाज़िर