बुझ गई आग तो कमरे में धुआँ ही रखना
दिल में इक गोशा-ए-एहसास-ए-ज़ियाँ ही रखना
फिर इसी रह से मिलेगी नए इबलाग़ को सम्त
शेर को दर्द का उस्लूब-ए-बयाँ ही रखना
आह मंज़र को ये बर्फ़ाती हुई बे-सफ़री
साथ पिघले हुए रस्तों के निशाँ ही रखना
कह न सकना भी बहुत कुछ है रियाज़त हो अगर
ज़ख़्म होंटों के सर-ए-इज्ज़-ए-बयाँ ही रखना
जैसे वो सानेहा लम्हा भी ज़माना भी है 'साज़'
याद उस शख़्स के जाने का समाँ ही रखना
ग़ज़ल
बुझ गई आग तो कमरे में धुआँ ही रखना
अब्दुल अहद साज़