बोसा देते हो अगर तुम मुझ को दो दो सब के दो
जीभ के दो सिर के दो रुख़्सार के दो सब के दो
ले के दो रुख़्सार के बोसे जो माँगे सब के दो
और तो दे देंगे बोले पर ये हैं बे-ढब के दो
माँगते तुझ से नहीं ऐ गुल-बदन कुछ और हम
है अगर तौफ़ीक़ तुम बोसे दो नाम-ए-रब के दो
रोज़ों में गर पास अपने आए वो रश्क-ए-क़मर
बोसा हम इफ़्तार को माँगें लब-ए-अत्यब के दो
मिस्ल-ए-यूसुफ़ हो रहा हूँ मैं असीर-ए-चाह-ए-ग़म
बोसा ऐ रश्क-ए-ज़ुलेख़ा दो मुझे अबअब के दो
मैं नहीं हूँ माँगता दस बीस तुम से या पचास
सिर्फ़ दो बोसा लब-ए-शीरीं के हँस कर अब के दो
है ख़ुशी ये आप की ऐ माह-रू दो या न दो
कौन कहता है कि तुम बोसे किसी से दब के दो
दो दो कर के बोसा-ए-मौऊद जब मैं ने गिने
हँस के पूछा हैं इकट्ठे ये किए कब कब के दो
तब कहा मैं ने कि सुन लो शेर में क्या शर्म है
सुब्ह के दो शाम के दो दिन के दो और शब के दो
दोनों रुख़्सारों के बोसे लेंगे हम ऐ सीम-तन
दो हमें इस ढब के दो तुम और दो इस ढब के दो
'मशरिक़ी' माशूक़ दो पच्छिम के महफ़िल में हो गर
दो दकन के चाहिएँ उत्तर के दो पूरब के दो
ग़ज़ल
बोसा देते हो अगर तुम मुझ को दो दो सब के दो
सरदार गेंडा सिंह मशरिक़ी