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बिसात-ए-वक़्त पे सदियों के फ़ासले हम लोग | शाही शायरी
bisat-e-waqt pe sadiyon ke fasle hum log

ग़ज़ल

बिसात-ए-वक़्त पे सदियों के फ़ासले हम लोग

ख़ुर्शीद रिज़वी

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बिसात-ए-वक़्त पे सदियों के फ़ासले हम लोग
कनार-ए-शाम-ओ-सहर में कहाँ ढले हम लोग

न कारवाँ न मुसाफ़िर मगर जरस न थमी
न रौशनी न हरारत मगर जले हम लोग

मक़ाम जिन का मुअर्रिख़ के हाफ़िज़े में नहीं
शिकस्त ओ फ़त्ह के माबैन मरहले हम लोग

नुमूद-ए-जिस्म की शोरीदा ख़्वाहिशें दुनिया
फ़िशार-ए-रूह के नादीदा वलवले हम लोग

न जाने कब कोई करवट हमें जगा डाले
ज़मीं के बत्न में ख़्वाबीदा ज़लज़ले हम लोग

फ़साद-ए-कोह-कनी हीला-हा-ए-परवेज़ी
हज़ार रंग के काँटों में आबले हम लोग

अमीर-ए-शहर की मोटी समझ में क्या आते
ज़मीर-ए-दहर के नाज़ुक मुआ'मले हम लोग

हुजूम-ए-संग-ए-अज़िय्यत में सर झुकाए हुए
रवाँ हैं ले के मशिय्यत के क़ाफ़िले हम लोग

ज़बाँ-बुरीदा ओ बे-दस्त-ओ-पा सही लेकिन
ज़मीर-ए-कौन-ओ-मकाँ हैं बुरे भले हम लोग