बिसात-ए-वक़्त पे सदियों के फ़ासले हम लोग
कनार-ए-शाम-ओ-सहर में कहाँ ढले हम लोग
न कारवाँ न मुसाफ़िर मगर जरस न थमी
न रौशनी न हरारत मगर जले हम लोग
मक़ाम जिन का मुअर्रिख़ के हाफ़िज़े में नहीं
शिकस्त ओ फ़त्ह के माबैन मरहले हम लोग
नुमूद-ए-जिस्म की शोरीदा ख़्वाहिशें दुनिया
फ़िशार-ए-रूह के नादीदा वलवले हम लोग
न जाने कब कोई करवट हमें जगा डाले
ज़मीं के बत्न में ख़्वाबीदा ज़लज़ले हम लोग
फ़साद-ए-कोह-कनी हीला-हा-ए-परवेज़ी
हज़ार रंग के काँटों में आबले हम लोग
अमीर-ए-शहर की मोटी समझ में क्या आते
ज़मीर-ए-दहर के नाज़ुक मुआ'मले हम लोग
हुजूम-ए-संग-ए-अज़िय्यत में सर झुकाए हुए
रवाँ हैं ले के मशिय्यत के क़ाफ़िले हम लोग
ज़बाँ-बुरीदा ओ बे-दस्त-ओ-पा सही लेकिन
ज़मीर-ए-कौन-ओ-मकाँ हैं बुरे भले हम लोग

ग़ज़ल
बिसात-ए-वक़्त पे सदियों के फ़ासले हम लोग
ख़ुर्शीद रिज़वी