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बीमार-ए-ग़म का कोई मुदावा न कीजिए | शाही शायरी
bimar-e-gham ka koi mudawa na kijiye

ग़ज़ल

बीमार-ए-ग़म का कोई मुदावा न कीजिए

तालिब बाग़पती

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बीमार-ए-ग़म का कोई मुदावा न कीजिए
या'नी सितमगरी भी गवारा न कीजिए

रुस्वाई है तो ये भी गवारा न कीजिए
या'नी पस-ए-ख़याल भी आया न कीजिए

ज़र्फ़-ए-निगाह चाहिए दीदार के लिए
रुख़ को पस-ए-नक़ाब छुपाया न कीजिए

दिल शौक़ से जलाइए इंकार है किसे
लेकिन जला जला के बुझाया न कीजिए

पर्दा निगाह का है तो कैसी ख़ुसूसियत
अपनी निगाह-ए-नाज़ से पर्दा न कीजिए

कल ग़ैर की गली में क़यामत का ज़िक्र था
शरमाइए हुज़ूर बहाना न कीजिए

बस आप का सितम ही करम है मिरे लिए
लिल्लाह ग़ैर से मुझे पूछा न कीजिए

पाबंदा-ए-वफ़ा है तो फिर मुद्दआ' से काम
मर जाइए किसी की तमन्ना न कीजिए

'तालिब' हदीस-ए-इश्क़ तवज्जोह तलब सही
यूँ दास्ताँ बना के सुनाया न कीजिए