बिगड़ने से तुम्हारे क्या कहूँ मैं क्या बिगड़ता है
कलेजा मुँह को आ जाता है दिल ऐसा बिगड़ता है
शब-ए-ग़म में पड़े तन्हा तसल्ली दिल की करते हैं
यही आलम का नक़्शा है सदा बनता बिगड़ता है
वो याद आता है आलम वस्ल की शब का वो आराइश
वो कहना छू न इस दम ज़ुल्फ़ का हल्क़ा बिगड़ता है
हमारे उठ के जाने में तिरी क्या बात बनती है
हमारे याँ के रहने में तिरा क्या क्या बिगड़ता है
वो कुछ हो जाना रंजिश उस परी से बातों बातों में
वो कहना फेर कर मुँह ये तो कुछ अच्छा बिगड़ता है
जो ब'अद-अज़-उम्र ख़त लिख्खा तो ये तक़दीर का लिख्खा
इबारत गर कहीं बनती है तो मअना बिगड़ता है
अगर ख़ामोश रहता हूँ तो जी पर मेरे बनती है
अगर कुछ मुँह से कहता हूँ तो वो कैसा बिगड़ता है
सिफ़ारिश पर बिगड़ कर हाए वो उस शोख़ का कहना
मना लेता उसे मैं पर मिरा शेवा बिगड़ता है
'निज़ाम' उस की इनायत है तो फिर किस बात का ग़म है
बनाता है वो जिस का काम कब उस का बिगड़ता है
ग़ज़ल
बिगड़ने से तुम्हारे क्या कहूँ मैं क्या बिगड़ता है
निज़ाम रामपुरी