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बिछड़ते वक़्त तो कुछ उस में ग़म-गुसारी थी | शाही शायरी
bichhaDte waqt to kuchh usMein gham-gusari thi

ग़ज़ल

बिछड़ते वक़्त तो कुछ उस में ग़म-गुसारी थी

रज़ी अख़्तर शौक़

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बिछड़ते वक़्त तो कुछ उस में ग़म-गुसारी थी
वो आँख फिर तो हर इक कैफ़ियत से आरी थी

न जाने आज हवाओं की ज़द पे कौन आया
न जाने आज की शब किस दिए की बारी थी

ज़रा सी देर को चमकी तो थी ग़नीम की तेग़
सवाद-ए-शहर में फिर रौशनी हमारी थी

सफ़र से लौटे तो जैसे यक़ीं नहीं आता
कि सारी उम्र इसी शहर में गुज़ारी थी

हरीफ़ तेग़ से में अपनी आगही से लड़ा
ये अद्ल वक़्त करे किस की ज़र्ब कारी थी

दिलों के खेल भी कैसे अजीब खेल हैं 'शौक़'
कि मैं उदास था बाज़ी किसी ने हारी थी