EN اردو
भूली-बिसरी हुई यादों में कसक है कितनी | शाही शायरी
bhuli-bisri hui yaadon mein kasak hai kitni

ग़ज़ल

भूली-बिसरी हुई यादों में कसक है कितनी

ज़ुबैर रिज़वी

;

भूली-बिसरी हुई यादों में कसक है कितनी
डूबती शाम के अतराफ़ चमक है कितनी

मंज़र-ए-गुल तो बस इक पल के लिए ठहरा था
आती जाती हुई साँसों में महक है कितनी

गिर के टूटा नहीं शायद वो किसी पत्थर पर
उस की आवाज़ में ताबिंदा खनक है कितनी

अपनी हर बात में वो भी है हसीनों जैसा
उस सरापे में मगर नोक-पलक है कितनी

जाते मौसम ने जिन्हें छोड़ दिया है तन्हा
मुझ में उन टूटते पत्तों की झलक है कितनी