भीगे शेर उगलते जीवन बीत गया
ठंडी आग में जलते जीवन बीत गया
यूँ तो चार-क़दम पर मेरी मंज़िल थी
लेकिन चलते चलते जीवन बीत गया
शाम ढले उस को नदिया पर आना था
सूरज ढलते ढलते जीवन बीत गया
एक अनोखा सपना देखा नींद उड़ी
आँखें मलते मलते जीवन बीत गया
आख़िर किस बहरूप को अपना रूप कहूँ
'असलम' रूप बदलते जीवन बीत गया
ग़ज़ल
भीगे शेर उगलते जीवन बीत गया
असलम कोलसरी