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भटकी है उजालों में नज़र शाम से पहले | शाही शायरी
bhaTki hai ujalon mein nazar sham se pahle

ग़ज़ल

भटकी है उजालों में नज़र शाम से पहले

सज्जाद बाबर

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भटकी है उजालों में नज़र शाम से पहले
ये शाम ढले का सा असर शाम से पहले

सकते में सिसकते हुए ताबूत खुलेंगे
अच्छा है निकल जाए ये डर शाम से पहले

वो रज़मिया पढ़ते हैं वो उक्साते हैं मुझ को
जाती हुई किरनों के भँवर शाम से पहले

मैं टीले पे बैठा तो सुनी शहर की सिसकी
देखे मिरे आँगन मिरे घर शाम से पहले

ऐ सुब्ह के तारे की ज़िया ओस की ठंडक
इक रोज़ मिरी छत पे उतर शाम से पहले

इस बार शब-ए-चार-दहुम कुछ तो परखना
फिर काट न देना मिरे पर शाम से पहले

वो क़ुमक़ुमे बाज़ार के मुझ से हैं शनासा
उस सम्त भी जाता हूँ मगर शाम से पहले

मैं दर्द के क़स्बे में बहुत देर से पहुँचा
बिक जाते हैं सब ताज़ा समर शाम से पहले