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भले ही आँख मिरी सारी रात जागेगी | शाही शायरी
bhale hi aankh meri sari raat jagegi

ग़ज़ल

भले ही आँख मिरी सारी रात जागेगी

ज़फर इमाम

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भले ही आँख मिरी सारी रात जागेगी
सजा सजा के सलीक़े से ख़्वाब देखेगी

उजाला अपने घरौंदे में रह गया तो रात
कहाँ क़याम करेगी कहाँ से गुज़रेगी

हमारी आँख समुंदर खंगालने वाली
यक़ीन है कि कभी मोतियों से खेलेगी

ख़ुद-ए'तिमादी ज़रा ए'तिदाल में रखियो
उलट गई तो वो अपनी ज़बान भूलेगी

सुहानी शाम के मौसम में क्यूँ उदासी है
हवा उधर से चली तो कहाँ पे ठहरेगी

किसी अना को कोई मस्लहत न छू पाए
यही तो है कि मिरा ए'तिबार रक्खेगी

तुम्हारे सर पे फ़ज़ीलत की छाँव है साहिब
ख़ता-मुआफ़ तुम्हें ये खंडर बना देगी