भला कब देख सकता हूँ कि ग़म नाकाम हो जाए
जो आराम-ए-दिल-ओ-जाँ है वो बे-आराम हो जाए
मोहब्बत क्या अगर यूँ सूरत-ए-इल्ज़ाम हो जाए
नज़र नाकाम और ज़ौक़-ए-नज़र बदनाम हो जाए
क़यामत है अगर यूँ ज़िंदगी नाकाम हो जाए
वो पहलू में न हों और गर्मियों की शाम हो जाए
ग़म-ए-दिल है मगर आख़िर ग़म-ए-दिल क्या कहे कोई
फ़साना मुख़्तसर हो कर जब उन का नाम हो जाए
मोहब्बत रह चुकी और मातम-ए-अंजाम बाक़ी है
वो आँखें अश्क भर लाएँ तो अपना काम हो जाए
बड़ी हसरत से इंसाँ बचपने को याद करता है
ये फल पक कर दोबारा चाहता है ख़ाम हो जाए
जिया लेकिन मिरा जीना किसी के भी न काम आया
मैं मरता हूँ कि शायद ज़िंदगी पैग़ाम हो जाए
'नुशूर' अहबाब-ए-ख़ुश-दिल को ज़रा हँस बोल लेने दो
क़यामत है अगर एहसास-ए-शाइर आम हो जाए
ग़ज़ल
भला कब देख सकता हूँ कि ग़म नाकाम हो जाए
नुशूर वाहिदी