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बेजा नवाज़िशात का बार-ए-गराँ नहीं | शाही शायरी
beja nawazishat ka bar-e-garan nahin

ग़ज़ल

बेजा नवाज़िशात का बार-ए-गराँ नहीं

शकेब जलाली

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बेजा नवाज़िशात का बार-ए-गराँ नहीं
मैं ख़ुश हूँ इस लिए कि कोई मेहरबाँ नहीं

आग़ोश-ए-हादसात में पाई है परवरिश
जो बर्क़ फूँक दे वो मिरा आशियाँ नहीं

क्यूँ हंस रहे हैं राह की दुश्वारियों पे लोग
हूँ बे-वतन ज़रूर मगर बे-निशाँ नहीं

घबराईए न गर्दिश-ए-अय्याम से हनूज़
तर्तीब-ए-फ़स्ल-ए-गुल है ये दौर-ए-ख़िज़ाँ नहीं

कुछ बर्क़-सोज़ तिनके मुझे चाहिएँ 'शकेब'
झुक जाएँ गुल के बार से वो डालियाँ नहीं