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बे-वज्ह नईं है आइना हर बार देखना | शाही शायरी
be-wajh nain hai aaina har bar dekhna

ग़ज़ल

बे-वज्ह नईं है आइना हर बार देखना

मोहम्मद रफ़ी सौदा

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बे-वज्ह नईं है आइना हर बार देखना
कोई दम को फूलता है ये गुलज़ार देखना

नर्गिस की तरह ख़ाक मेरी उगें हैं चश्म
टुक आन के ये हसरत-ए-दीदार देखना

खींचे तो तेग़ है हरम-ए-दिल के सैद पर
ऐ इश्क़ पर भला तू मुझे मार देखना

है नक़्स-ए-जान दीद तिरा पर यही है धुन
जी जाओ यार हो मुझे यक-बार देखना

ऐ तिफ़्ल-ए-अश्क है फ़लक-ए-हफ़्तमीं प अर्श
आगे क़दम न रखियो तू ज़िन्हार देखना

पूछे ख़ुदा सबब जो मिरे इश्तियाक़ का
मेरी ज़बाँ से हो यही इज़हार देखना

हर नक़्श-ए-पा पे तड़पे है यारो हर एक दिल
टुक वास्ते ख़ुदा के ये रफ़्तार देखना

करता तो है तू आन के 'सौदा' से इख़्तिलात
कोई लहर आ गई तो मिरे यार देखना

तुझ बिन अजब मआश है 'सौदा' का इन दिनों
तू भी टुक उस को जा के सितमगार देखना

ने हर्फ़ ओ ने हिकायत ओ ने शेर ओ ने सुख़न
ने सैर-ए-बाग़ ओ ने गुल-ओ-गुलज़ार देखना

ख़ामोश अपने कल्बा-ए-अहज़ाँ में रोज़ ओ शब
तन्हा पड़े हुए दर-ओ-दीवार देखना

या जा के उस गली में जहाँ था तिरा गुज़र
ले सुब्ह ता-ब-शाम कई बार देखना

तस्कीन-ए-दिल न इस में भी पाई तो बहर-ए-शग़्ल
पढ़ना ये शेर गर कभू अशआर देखना

कहते थे हम न देख सकें रोज़-ए-हिज्र को
पर जो ख़ुदा दिखाए सो नाचार देखना