EN اردو
बे-ख़ुदी पे था 'फ़ानी' कुछ न इख़्तियार अपना | शाही शायरी
be-KHudi pe tha fani kuchh na iKHtiyar apna

ग़ज़ल

बे-ख़ुदी पे था 'फ़ानी' कुछ न इख़्तियार अपना

फ़ानी बदायुनी

;

बे-ख़ुदी पे था 'फ़ानी' कुछ न इख़्तियार अपना
उम्र भर किया नाहक़ हम ने इंतिज़ार अपना

ताब-ए-ज़ब्त-ए-ग़म ने भी दे दिया जवाब आख़िर
उन के दिल से उठता है आज ए'तिबार अपना

इश्क़ ज़िंदगी ठहरा लेकिन अब ये मुश्किल है
ज़िंदगी से होता है अहद उस्तुवार अपना

शिकवा बरमला करते ख़ैर ये तो क्या करते
हाँ मगर जो बन पड़ता शिकवा एक बार अपना

ग़म ही जी का दुश्मन था ग़म से दूर रहते थे
ग़म ही रह गया आख़िर एक ग़म-गुसार अपना

ले गया चमन को भी मौसम-ए-बहार आ कर
अब क़फ़स का गोशा है हासिल-ए-बहार अपना

झूट ही सही वादा क्यूँ यक़ीं न कर लेते
बात दिल-फ़रेब उन की दिल उमीद-वार अपना

इंक़िलाब-ए-आलम में वर्ना देर ही क्या थी
उन के आस्ताँ तक था ख़ैर से ग़ुबार अपना

दिल है मुज़्तरिब 'फ़ानी' आँख महव-ए-हैरत है
दिल ने दे दिया शायद आँख को क़रार अपना