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बे-जुर्म-ओ-बेगुनाह ग़रीब-उल-वतन किया | शाही शायरी
be-jurm-o-be-gunah gharib-ul-watan kiya

ग़ज़ल

बे-जुर्म-ओ-बेगुनाह ग़रीब-उल-वतन किया

सय्यद अाग़ा अली महर

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बे-जुर्म-ओ-बेगुनाह ग़रीब-उल-वतन किया
हम को वतन से शाह ग़रीब-उल-वतन किया

ग़ुर्बत की शाम उल्फ़त-ए-गेसू में देखिए
उस दिल ने हम को आह ग़रीब-उल-वतन क्या

उस पर न पड़ती आँख न छुटता कभी वतन
बस तू ने ऐ निगाह ग़रीब-उल-वतन किया

दुश्मन न यूँ हो दोस्त ने जिस तरह से हमें
बा-हालत-ए-तबाह ग़रीब-उल-वतन किया

ऐ 'मेहर' हम को चर्ख़ ने गर्दिश से रोज़-ओ-शब
मानिंद-ए-मेहर-ओ-माह ग़रीब-उल-वतन किया