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बे-बुलाए हुए जाना मुझे मंज़ूर नहीं | शाही शायरी
be-bulae hue jaana mujhe manzur nahin

ग़ज़ल

बे-बुलाए हुए जाना मुझे मंज़ूर नहीं

मिर्ज़ा रज़ा बर्क़

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बे-बुलाए हुए जाना मुझे मंज़ूर नहीं
उन का वो तौर नहीं मेरा ये दस्तूर नहीं

लन-तरानी के ये मअ'नी हैं बजा है दावा
देखे बे-पर्दा तुझे कोई ये मक़्दूर नहीं

वो कहाँ ताज कहाँ तख़्त कहाँ माल ओ मनाल
क़ाबिल अब भीक के भी कासा-ए-फ़ग़्फ़ूर नहीं

बे-इबादत न ख़ुदा बख़्शेगा सुब्हान-अल्लाह
ऐसी फ़िरदौस से हम गुज़रे कि मज़दूर नहीं

मैं वो मय-कश हूँ न रक्खूँ कभी भूले से क़दम
कोई कह दे ये अगर ख़ुल्द में अँगूर नहीं

दम-ब-दम उठते हैं तूफ़ान जो 'बर्क़' अश्कों के
नूह का वक़्त नहीं आँख है तन्नूर नहीं