बे-बाक न देखा कोई क़ातिल के बराबर
शर्म आँख में पाई न गई तिल के बराबर
दुश्मन कोई ऐ यार मिरा और तिरा दोस्त
होगा न ज़माने में मिरे दिल के बराबर
दिल मुत्तसिल-ए-कूचा-ए-महबूब हुआ गुम
लुटना था पहुँच कर मुझे मंज़िल के बराबर
कम-बख़्ती-ए-वाइज़ है कि हो वाज़ की सोहबत
रिन्दान-क़द्ह-नोश की महफ़िल के बराबर
हम पी गए जो अश्क क़रीब-ए-मिज़ा आया
कश्ती हुई जब ग़र्क़ तो साहिल के बराबर
आहों के शरर गर्द नहीं दाग़-ए-जिगर के
ताबिंदा हैं अख़्तर मह-ए-कामिल के बराबर
पर्दा न उठा क़ैस ने लैला को न देखा
झोंका भी न आया कोई महमिल के बराबर
मक़्तल में ये हसरत रही ऐ ज़ोफ़ पस-ए-ज़ब्ह
पहुँचे न तड़प कर किसी बिस्मिल के बराबर
घर तक दर-ए-जानाँ से 'जलाल' आइए क्यूँ कर
एक एक क़दम है कई मंज़िल के बराबर
ग़ज़ल
बे-बाक न देखा कोई क़ातिल के बराबर
जलाल लखनवी