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बज़्म से जब निगार उठता है | शाही शायरी
bazm se jab nigar uThta hai

ग़ज़ल

बज़्म से जब निगार उठता है

जौन एलिया

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बज़्म से जब निगार उठता है
मेरे दिल से ग़ुबार उठता है

मैं जो बैठा हूँ तो वो ख़ुश-क़ामत
देख लो बार बार उठता है

तेरी सूरत को देख कर मिरी जाँ
ख़ुद-बख़ुद दिल में प्यार उठता है

उस की गुल-गश्त से रविश-ब-रविश
रंग ही रंग यार उठता है

तेरे जाते ही इस ख़राबे से
शोर-ए-गिर्या हज़ार उठता है

कौन है जिस को जाँ अज़ीज़ नहीं
ले तिरा जाँ-निसार उठता है

सफ़-ब-सफ़ आ खड़े हुए हैं ग़ज़ाल
दश्त से ख़ाकसार उठता है

है ये तेशा कि एक शो'ला सा
बर-सर-ए-कोहसार उठता है

कर्ब-ए-तन्हाई है वो शय कि ख़ुदा
आदमी को पुकार उठता है

तू ने फिर कस्ब-ए-ज़र का ज़िक्र किया
कहीं हम से ये बार उठता है

लो वो मजबूर शहर-ए-सहरा से
आज दीवाना-वार उठता है

अपने याँ तो ज़माने वालों का
रोज़ ही ए'तिबार उठता है

'जौन' उठता है यूँ कहो या'नी
'मीर'-ओ-'ग़ालिब' का यार उठता है