बज़्म से जब निगार उठता है
मेरे दिल से ग़ुबार उठता है
मैं जो बैठा हूँ तो वो ख़ुश-क़ामत
देख लो बार बार उठता है
तेरी सूरत को देख कर मिरी जाँ
ख़ुद-बख़ुद दिल में प्यार उठता है
उस की गुल-गश्त से रविश-ब-रविश
रंग ही रंग यार उठता है
तेरे जाते ही इस ख़राबे से
शोर-ए-गिर्या हज़ार उठता है
कौन है जिस को जाँ अज़ीज़ नहीं
ले तिरा जाँ-निसार उठता है
सफ़-ब-सफ़ आ खड़े हुए हैं ग़ज़ाल
दश्त से ख़ाकसार उठता है
है ये तेशा कि एक शो'ला सा
बर-सर-ए-कोहसार उठता है
कर्ब-ए-तन्हाई है वो शय कि ख़ुदा
आदमी को पुकार उठता है
तू ने फिर कस्ब-ए-ज़र का ज़िक्र किया
कहीं हम से ये बार उठता है
लो वो मजबूर शहर-ए-सहरा से
आज दीवाना-वार उठता है
अपने याँ तो ज़माने वालों का
रोज़ ही ए'तिबार उठता है
'जौन' उठता है यूँ कहो या'नी
'मीर'-ओ-'ग़ालिब' का यार उठता है
ग़ज़ल
बज़्म से जब निगार उठता है
जौन एलिया