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बज़्म-ए-आलम में बहुत से हम ने मारे हाथ-पाँव | शाही शायरी
bazm-e-alam mein bahut se humne mare hath-paon

ग़ज़ल

बज़्म-ए-आलम में बहुत से हम ने मारे हाथ-पाँव

मिर्ज़ा मासिता बेग मुंतही

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बज़्म-ए-आलम में बहुत से हम ने मारे हाथ-पाँव
तेरी सूरत के न देखे प्यारे प्यारे हाथ-पाँव

बहर-ए-उल्फ़त में बहुत से हम ने मारे हाथ-पाँव
लग रहे मानिंद-ए-ख़स आख़िर किनारे हाथ-पाँव

आशिक़ मू-ए-कमर की ले ख़बर ओ बे-ख़बर
सूख कर तिनका हुए हैं उस के सारे हाथ-पाँव

मेरी ख़िदमत से निहायत ख़ुश हुआ वो बद-मिज़ाज
वस्ल की शब काम आए अपने बारे हाथ-पाँव

बहर-ए-हस्ती में मिला हम को दुर-ए-मक़्सद न हैफ़
मौज के मानिंद क्या क्या हम ने मारे हाथ-पाँव

वक़्त-ए-ज़ब्ह बोला ये क़ातिल आशिक़-ए-नाद-शाद से
टुकड़े कर डाला कभी तू ने जो मारे हाथ-पाँव

खेल रहता है तवक्कुल पर मिरी औक़ात का
चलते-फिरते हैं हमारे बे-सहारे हाथ-पाँव

तीखी तीखी उन की चितवन बाँकी बाँकी उन की चाल
भोली भोली उन की सूरत प्यारे प्यारे हाथ-पाँव