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बताएँ क्या कि आए हैं कहाँ से हम कहाँ हो कर | शाही शायरी
bataen kya ki aae hain kahan se hum kahan ho kar

ग़ज़ल

बताएँ क्या कि आए हैं कहाँ से हम कहाँ हो कर

पंडित जगमोहन नाथ रैना शौक़

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बताएँ क्या कि आए हैं कहाँ से हम कहाँ हो कर
निशाँ अब ढूँडते-फिरते हैं घर का बे-निशाँ हो कर

लुभाने को दिल-ए-शैदा के सारी पर्दा-दारी थी
अयाँ हो तुम निहाँ हो कर निहाँ हो तुम अयाँ हो कर

हमारी ख़ाक के ज़र्रे फ़ना हो कर भी चमकेंगे
उरूज अपना दिखाएँ गे ये नज्म-ए-आसमाँ हो कर

दिल-ए-आवारा क्यूँ तुझ को ख़याल कू-ए-जानाँ है
अरे नादाँ कहाँ जा कर रहेगा बे-निशाँ हो कर

ये दौर-ए-मय-कशी हर-वक़्त महव-ए-दीद रखता है
कहाँ आँखों में ये ग़फ़लत रहे ख़्वाब-ए-गिराँ हो कर

मुसलमाँ हो के तर्क-ए-बुत-परस्ती ऐ मआ'ज़-अल्लाह
ख़ुदा को हम ने पहचाना है शैदा-ए-बुताँ हो कर

ये बार-ए-मासियत मंज़िल कड़ी और शाम-ए-तन्हाई
चले हैं क्या समझ कर हम भी रुस्वा-ए-जहाँ हो कर

अभी क्या जाने क्या क्या रंग वो ऐ 'शौक़' बदलेगा
ज़मीं पर इक करेगा हश्र बरपा आसमाँ हो कर