बस्ती में क़त्ल-ए-आम की कोशिश न बन सका
मैं क़ातिलों के ज़ेहन की साज़िश न बन सका
कोई कमी न उस में थी शायद इसी लिए
वो शख़्स मेरे वास्ते ख़्वाहिश न बन सका
मैं रुक नहीं सका तो मिरी बेबसी थी ये
बादल था उस के सहन में बारिश न बन सका
जिस पर तमाम-उम्र बहुत नाज़ था मुझे
मेरा वो इल्म मेरी सिफ़ारिश न बन सका
क्या बात थी वो दिल में मिरे उम्र-भर रहा
जो शख़्स मेरे घर की नुमाइश न बन सका
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ग़ज़ल
बस्ती में क़त्ल-ए-आम की कोशिश न बन सका
प्रेम भण्डारी