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बसा-औक़ात मायूसी में ये आलम भी होता है | शाही शायरी
basa-auqat mayusi mein ye aalam bhi hota hai

ग़ज़ल

बसा-औक़ात मायूसी में ये आलम भी होता है

एहसान दानिश

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बसा-औक़ात मायूसी में ये आलम भी होता है
तबस्सुम की तहों में एहतिमाम-ए-ग़म भी होता है

ख़ुशी तन्हा नहीं आती जिलौ में ग़म भी होता है
जहाँ हँसती हैं कलियाँ गिर्या-ए-शबनम भी होता है

नई तहज़ीब के मे'मार शायद उस से ग़ाफ़िल हैं
ब-ईं आसार-ए-आलम दरहम-ओ-बरहम भी होता है

जो आँखें घूंघटों में रोज़ के फ़ाक़ों से पुर-नम हैं
उन आँखों में फुसून-ए-इस्मत-ए-मरियम भी होता है

ब-ईमा-ए-ख़िरद तुम देखते हो जिस को नफ़रत से
वो दीवाना ख़िरद की अस्ल का महरम भी होता है

रबाब-ए-ज़ि़ंदगी के ज़मज़मों पर झूमने वाले
हर इक नग़्मे में ना-मालूम सा मातम भी होता है

वो इंसाँ नाज़ करता है जो अव्वल से शराफ़त पर
बहकता है तो नंग-ए-अज़्मत-ए-आदम भी होता है

जवानी सैल-ए-शेर-ओ-बादा-ए-नग़्मा सही लेकिन
ये तूफ़ान-ए-लताफ़त ख़ुद-बख़ुद मद्धम भी होता है

जिसे कोई समझ ले सादगी से हासिल-ए-हस्ती
वो जब हासिल नहीं होता तो आख़िर ग़म भी होता है

तबस्सुम फूल बरसाता है जिन रंगीन होंटों से
उन्ही होंटों पे इक दिन नाला-ए-पैहम भी होता है

ब-जुज़ ज़ात-ए-ख़ुदा 'एहसान' कोई भी नहीं अपना
सुना था लाख दुश्मन हों तो इक हमदम भी होता है