बस यूँही इक वहम सा है वाक़िआ ऐसा नहीं
आइने की बात सच्ची है कि मैं तन्हा नहीं
बैठिए पेड़ों की उतरन का अलाव तापिए
बर्ग-ए-सोज़ाँ के सिवा दरवेश कुछ रखता नहीं
उफ़ चटख़ने की सदा से किस क़दर डरता हूँ मैं
कितनी बातें हैं कि दानिस्ता जिन्हें सोचा नहीं
अपनी अपनी सब की आँखें अपनी अपनी ख़्वाहिशें
किस नज़र में जाने क्या जचता है क्या जचता नहीं
चैन का दुश्मन हुआ इक मसअला मेरी तरफ़
उस ने कल देखा था क्यूँ और आज क्यूँ देखा नहीं
अब जहाँ ले जाए मुझ को जलती-बुझती आरज़ू
मैं भी इस जुगनू का पीछा छोड़ने वाला नहीं
कैसी कैसी पुर्सिशें 'अनवर' रुलाती हैं मुझे
खेतियों से क्या कहूँ मैं अब्र क्यूँ बरसा नहीं
ग़ज़ल
बस यूँही इक वहम सा है वाक़िआ ऐसा नहीं
अनवर मसूद