बस इस क़दर है ख़ुलासा मिरी कहानी का
कि बन के टूट गया इक हबाब पानी का
मिला है साक़ी तो रौशन हुआ है ये मुझ पर
कि हज़्फ़ था कोई टुकड़ा मिरी कहानी का
मुझे भी चेहरे पे रौनक़ दिखाई देती है
ये मो'जिज़ा है तबीबों की ख़ुश-बयानी का
है दिल में एक ही ख़्वाहिश वो डूब जाने की
कोई शबाब कोई हुस्न है रवानी का
लिबास-ए-हश्र में कुछ हो तो और क्या होगा
बुझा सा एक छनाका तिरी जवानी का
करम के रंग निहायत अजीब होते हैं
सितम भी एक तरीक़ा है मेहरबानी का
'अदम' बहार के मौसम ने ख़ुद-कुशी कर ली
खुला जो रंग किसी जिस्म-ए-अर्ग़वानी का
ग़ज़ल
बस इस क़दर है ख़ुलासा मिरी कहानी का
अब्दुल हमीद अदम