बस अब तर्क-ए-तअल्लुक़ के बहुत पहलू निकलते हैं
सो अब ये तय हुआ है शहर से साधू निकलते हैं
हम आ निकले अजब से एक सहरा-ए-मोहब्बत में
शिकारी के तआक़ुब में यहाँ आहू निकलते हैं
ये इक मंज़र बहुत है उम्र भर हैरान रहने को
कि मिट्टी के मसामों से भी रंग-ओ-बू निकलते हैं
ज़मीर-ए-संग तुझ को तेरा पैकर-साज़ आ पहुँचा
अभी आँखें उभरती हैं अभी आँसू निकलते हैं
कोई नादिर ख़ज़ीना है मिरे दस्त-ए-तसर्रुफ़ में
झपटने को दर-ओ-दीवार से बाज़ू निकलते हैं
मैं अपने दुश्मनों का किस क़दर मम्नून हूँ 'अनवर'
कि उन के शर से क्या क्या ख़ैर के पहलू निकलते हैं
ग़ज़ल
बस अब तर्क-ए-तअल्लुक़ के बहुत पहलू निकलते हैं
अनवर मसूद