बरसों तपिश-ए-ग़म में ये एहसास जले है
तब जा के कहीं शे'र के साँचे में ढले है
कुछ ऐसे तेरी बज़्म में बैठा हूँ अकेला
जिस तरह सर-ए-राह कोई शम्अ' जले है
अल्लाह किसी शख़्स को रुस्वा न करे यूँ
मुझ से मिरा साया भी तो अब बच के चले है
इस मंज़िल-ए-दुश्वार से हंस हंस के गुज़र जा
पगले कहीं रोने से शब-ए-हिज्र ढले है
हर रोज़ नया रूप बदलती है तेरी याद
आहों में ढले है कभी अश्कों में ढले है
हर शहर में होने लगी अंगुश्त-नुमाई
रुस्वाई मिरी मुझ से भी कुछ आगे चले है
इक रोज़ उसे टूट ही जाना था बहर-हाल
दिल तोड़ के तू क्यूँ कफ़-ए-अफ़सोस मले है
ग़ज़ल
बरसों तपिश-ए-ग़म में ये एहसास जले है
इशरत किरतपुरी