बरसों के रत-जगों की थकन खा गई मुझे
सूरज निकल रहा था कि नींद आ गई मुझे
रक्खी न ज़िंदगी ने मिरी मुफ़लिसी की शर्म
चादर बना के राह में फैला गई मुझे
मैं बिक गया था बाद में बे-सर्फ़ा जान कर
दुनिया मिरी दुकान पे लौटा गई मुझे
दरिया पे एक तंज़ समझिए कि तिश्नगी
साहिल की सर्द रेत में दफ़ना गई मुझे
ऐ ज़िंदगी तमाम लहू राएगाँ हुआ
किस दश्त-ए-बे-सवाद में बरसा गई मुझे
काग़ज़ का चाँद रख दिया दुनिया ने हाथ में
पहले सफ़र की रात ही रास आ गई मुझे
क्या चीज़ थी किसी की अदा-ए-सुपुर्दगी
भीगे बदन की आग में नहला गई मुझे
'क़ैसर' क़लम की आग का एहसानमंद हूँ
जब उँगलियाँ जलीं तो ग़ज़ल आ गई मुझे
ग़ज़ल
बरसों के रत-जगों की थकन खा गई मुझे
क़ैसर-उल जाफ़री