बरसों अश्कों से वुज़ू का सिलसिला करते रहे
हम नमाज़-ए-ज़िंदगी यूँ भी अदा करते रहे
हम बराबर दोस्ती का हक़ अदा करते रहे
और वो रोज़ाना इक फ़ित्ना खड़ा करते रहे
हम बयाँ रो रो के दिल का मुद्दआ' करते रहे
अहल-ए-महफ़िल मुस्कुरा कर वाह-वा करते रहे
क्या बताएँ ज़िंदगानी इश्क़ की कैसे कटी
वो जफ़ा करते रहे और हम वफ़ा करते रहे
उम्र-भर अहल-ए-वतन ने बात तक मुझ से न की
लोग मेरी क़ब्र पर फिर जमघटा करते रहे
चाँद के मानिंद मुखड़े की ज़िया-पाशी के गिर्द
अपनी ज़ुल्फ़-ए-अम्बरीं से वो घटा करते रहे
इक नज़र तू ने न देखा बिस्मिलान-ए-ज़ार को
लोग तेरा ज़िक्र-ए-चश्म-ए-सुर्मा-सा करते रहे
वो जिन्हें आई मयस्सर इब्तिदा-ए-माल-ओ-ज़र
हम पे हर लहज़ा सितम की इंतिहा करते रहे
अहल-ए-दानिश देखें उन की सादगी बेचारगी
जो वसीलों के भरोसे पर ख़ता करते रहे
रहरवो रुक जाओ सोचो इस पहेली का जवाब
रहनुमाओं के निशाने क्यूँ ख़ता करते रहे
क्या सुनाएँ जाँ-ब-लब क़ौमों की बीमारी का हाल
दर्द बढ़ता ही गया जूँ जूँ दवा करते रहे
हो न पाया जाँ-ब-लब लाखों ग़रीबों का इलाज
अहल-ए-सर्वत तंदुरुस्तों की दवा करते रहे
हो गए कोशिश में अपनी काम वाले कामयाब
और नाकारा मुक़द्दर का गिला करते रहे
मैं तो बहर-ए-ग़म के तूफ़ानों से टकराता रहा
लोग कुछ साहिल पे बैठे तब्सिरा करते रहे
मन तुरा हाजी बगोयम तू मोरा हाजी बगो
शाइरान-ए-पेशावर ये मश्ग़ला करते रहे
शर-पसंदों की रिआ'यत में फ़क़ीहान-ए-किराम
ज़िश्त को ख़ूब और रवा को नारवा करते रहे
सरगुज़िश्त अपनी तो सारी ये है ऐ रब्ब-ए-रहीम
दरगुज़र करता रहा तू हम ख़ता करते रहे
रात चश्म-ए-'राज़' पहरों अश्क बरसाती रही
खेल के शौक़ीन रोना किरकिरा करते रहे

ग़ज़ल
बरसों अश्कों से वुज़ू का सिलसिला करते रहे
ख़लीलुर्रहमान राज़