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बरगश्ता-ए-यज़्दान से कुछ भूल हुई है | शाही शायरी
bargashta-e-yazdan se kuchh bhul hui hai

ग़ज़ल

बरगश्ता-ए-यज़्दान से कुछ भूल हुई है

साग़र सिद्दीक़ी

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बरगश्ता-ए-यज़्दान से कुछ भूल हुई है
भटके हुए इंसान से कुछ भूल हुई है

ता-हद्द-ए-नज़र शोले ही शोले हैं चमन में
फूलों के निगहबान से कुछ भूल हुई है

जिस अहद में लुट जाए फ़क़ीरों की कमाई
उस अहद के सुल्तान से कुछ भूल हुई है

हँसते हैं मिरी सूरत-ए-मफ़्तूँ पे शगूफ़े
मेरे दिल-ए-नादान से कुछ भूल हुई है

हूरों की तलब और मय ओ साग़र से है नफ़रत
ज़ाहिद तिरे इरफ़ान से कुछ भूल हुई है