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बरस गया ब-ख़राबात-ए-आरज़ू तिरा ग़म | शाही शायरी
baras gaya ba-KHarabaat-e-arzu tera gham

ग़ज़ल

बरस गया ब-ख़राबात-ए-आरज़ू तिरा ग़म

मजीद अमजद

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बरस गया ब-ख़राबात-ए-आरज़ू तिरा ग़म
क़दह क़दह तिरी यादें सुबू सुबू तिरा ग़म

तिरे ख़याल के पहलू से उठ के जब देखा
महक रहा था ज़माने में चार-सू तिरा ग़म

ग़ुबार-ए-रंग में रस ढूँढती किरन तिरी धुन
गिरफ़्त-ए-संग में बल खाती आब-ए-जू तिरा ग़म

नदी पे चाँद का परतव तिरा निशान-ए-क़दम
ख़त-ए-सहर पे अँधेरों का रक़्स तू तिरा ग़म

नख़ील-ए-ज़ीस्त की छाँव में नय-ब-लब तिरी याद
फ़सील-ए-दिल की कलस पर सितारा-जू तिरा ग़म

तुलू-ए-महर शगुफ़्ता सहर सियाही-ए-शब
तिरी तलब तुझे पाने की आरज़ू तिरा ग़म

निगह उठी तो ज़माने के सामने तिरा रूप
पलक झुकी तो मिरे दिल के रू-ब-रू तिरा ग़म