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बने हो ख़ाक से तो ख़ाकसारी हो तबीअ'त में | शाही शायरी
bane ho KHak se to KHaksari ho tabiat mein

ग़ज़ल

बने हो ख़ाक से तो ख़ाकसारी हो तबीअ'त में

सफ़ी औरंगाबादी

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बने हो ख़ाक से तो ख़ाकसारी हो तबीअ'त में
तबीअ'त ऐसी बनती है तो बनती है मोहब्बत में

बहाए जाओ आँसू उम्र-भर उस की मोहब्बत में
कि ऐसे लोग मोती के महल पाते हैं जन्नत में

कहा हाज़िर में कुछ हुज्जत नहीं फिर मुद्दआ' पूछा
सितमगर ने पलट दी बात अब हाज़िर है हुज्जत में

किसी से अपने हक़ में कुछ सुना भी है तो जाने दो
बुरा तो बादशाह को भी कहा करते हैं ग़ीबत में

मोहब्बत की ज़रा सी बात पर इतने ख़फ़ा क्यूँ हो
हुआ करती हैं आख़िर सैकड़ों बातें मोहब्बत में

नहीं ला सकता हर इक कोहकन फ़रहाद की क़िस्मत
ख़ुदा बख़्शे बड़ा इंसान गुज़रा छोटी उम्मत में

तिरी हर एक तस्वीर इक अदा-ए-ख़ास रखती है
करे क्या फ़र्क़ अब कोई ज़रूरत और ज़ीनत में

ये क्या साइल के मुँह पर तोड़ कर टुकड़ा सा रख देना
अरे बंदे ख़ुदा को मुँह दिखाना है क़यामत में

जो बदले दोस्त का भेस उस को दुश्मन किस तरह जानों
गया हज़रत कलीम-उल्लाह का नक़्क़ाल जन्नत में

मोहब्बत बे-इताअ'त एक धोका है मोहब्बत का
मोहब्बत का जो दा'वा है तो कोशिश कर इताअ'त में

मोहब्बत और मेहनत कोहकन ने ये भी की वो भी
उलट है एक नुक़्ते की मोहब्बत और मेहनत में

'सफ़ी' दुनिया में जीने का मज़ा कुछ भी नहीं पाया
हमारी उम्र कुछ ग़फ़लत में गुज़री कुछ नदामत में