बने हैं काम सब उलझन से मेरे
यही अतवार हैं बचपन से मेरे
हवा भी पूछने आती नहीं अब
वो ख़ुश्बू क्या गई आँगन से मेरे
ज़मीं हमवार हो कर रह गई है
उड़ी है धूल वो दामन से मेरे
सुनो इस दश्त का हम-ज़ाद हूँ मैं
ये वाक़िफ़ है अकेले-पन से मेरे
हवा-ए-बे-दिली भी ख़ूब निकली
ख़लिश तक ले उड़ी जीवन से मेरे
ग़ज़ल
बने हैं काम सब उलझन से मेरे
काशिफ़ हुसैन ग़ाएर