बंद था दरवाज़ा भी और अगर में भी तन्हा था मैं
वहम था जाने मिरा या आप ही बोला था में
याद है अब तक मुझे वो बद-हवासी का समाँ
तेरे पहले ख़त को घंटों चूमता रहता था मैं
रास्तों पर तीरगी की ये फ़रावानी न थी
इस से पहले भी तुम्हारे शहर में आया था मैं
मेरी उँगली पर हैं अब तक मेरे दाँतों के निशाँ
ख़्वाब ही लगता है फिर भी जिस जगह बैठा था मैं
आज 'अमजद' वहम है मेरे लिए जिस का वजूद
कल उसी का हाथ थामे घूमता फिरता था मैं
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ग़ज़ल
बंद था दरवाज़ा भी और अगर में भी तन्हा था मैं
अमजद इस्लाम अमजद