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बंद था दरवाज़ा भी और अगर में भी तन्हा था मैं | शाही शायरी
band tha darwaza bhi aur agar mein bhi tanha tha main

ग़ज़ल

बंद था दरवाज़ा भी और अगर में भी तन्हा था मैं

अमजद इस्लाम अमजद

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बंद था दरवाज़ा भी और अगर में भी तन्हा था मैं
वहम था जाने मिरा या आप ही बोला था में

याद है अब तक मुझे वो बद-हवासी का समाँ
तेरे पहले ख़त को घंटों चूमता रहता था मैं

रास्तों पर तीरगी की ये फ़रावानी न थी
इस से पहले भी तुम्हारे शहर में आया था मैं

मेरी उँगली पर हैं अब तक मेरे दाँतों के निशाँ
ख़्वाब ही लगता है फिर भी जिस जगह बैठा था मैं

आज 'अमजद' वहम है मेरे लिए जिस का वजूद
कल उसी का हाथ थामे घूमता फिरता था मैं