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बंद बाहर से मिरी ज़ात का दर है मुझ में | शाही शायरी
band bahar se meri zat ka dar hai mujh mein

ग़ज़ल

बंद बाहर से मिरी ज़ात का दर है मुझ में

जौन एलिया

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बंद बाहर से मिरी ज़ात का दर है मुझ में
मैं नहीं ख़ुद में ये इक आम ख़बर है मुझ में

इक अजब आमद-ओ-शुद है कि न माज़ी है न हाल
'जौन' बरपा कई नस्लों का सफ़र है मुझ में

है मिरी उम्र जो हैरान तमाशाई है
और इक लम्हा है जो ज़ेर-ओ-ज़बर है मुझ में

क्या तरसता हूँ कि बाहर के किसी काम आए
वो इक अम्बोह कि बस ख़ाक-बसर है मुझ में

डूबने वालों के दरिया मुझे पायाब मिले
उस में अब डूब रहा हूँ जो भँवर है मुझ में

दर-ओ-दीवार तो बाहर के हैं ढाने वाले
चाहे रहता नहीं मैं पर मिरा घर है मुझ में

मैं जो पैकार में अंदर की हूँ बे-तेग़-ओ-ज़िरह
आख़िरश कौन है जो सीना-सिपर है मुझ में

मा'रका गर्म है बे-तौर सा कोई हर-दम
न कोई तेग़ सलामत न सिपर है मुझ में

ज़ख़्म-हा-ज़ख़्म हूँ और कोई नहीं ख़ूँ का निशाँ
कौन है वो जो मिरे ख़ून में तर है मुझ में