बंद बाहर से मिरी ज़ात का दर है मुझ में
मैं नहीं ख़ुद में ये इक आम ख़बर है मुझ में
इक अजब आमद-ओ-शुद है कि न माज़ी है न हाल
'जौन' बरपा कई नस्लों का सफ़र है मुझ में
है मिरी उम्र जो हैरान तमाशाई है
और इक लम्हा है जो ज़ेर-ओ-ज़बर है मुझ में
क्या तरसता हूँ कि बाहर के किसी काम आए
वो इक अम्बोह कि बस ख़ाक-बसर है मुझ में
डूबने वालों के दरिया मुझे पायाब मिले
उस में अब डूब रहा हूँ जो भँवर है मुझ में
दर-ओ-दीवार तो बाहर के हैं ढाने वाले
चाहे रहता नहीं मैं पर मिरा घर है मुझ में
मैं जो पैकार में अंदर की हूँ बे-तेग़-ओ-ज़िरह
आख़िरश कौन है जो सीना-सिपर है मुझ में
मा'रका गर्म है बे-तौर सा कोई हर-दम
न कोई तेग़ सलामत न सिपर है मुझ में
ज़ख़्म-हा-ज़ख़्म हूँ और कोई नहीं ख़ूँ का निशाँ
कौन है वो जो मिरे ख़ून में तर है मुझ में
ग़ज़ल
बंद बाहर से मिरी ज़ात का दर है मुझ में
जौन एलिया