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बख़्शे न गए एक को बख़्शा न कभी | शाही शायरी
baKHshe na gae ek ko baKHsha na kabhi

ग़ज़ल

बख़्शे न गए एक को बख़्शा न कभी

इक़बाल ख़ुसरो क़ादरी

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बख़्शे न गए एक को बख़्शा न कभी
रस्ते पे मगर आई ये दुनिया न कभी

लाचार ख़ुद अपना ही क़सीदा लिक्खा
क़ाबिल कोई मीज़ान पे उतरा न कभी

गर्दन भी रेआया की झुकाए रक्खी
उठने दिया एहसान का पलड़ा न कभी

भरते ही रहे सूद में इक इक धड़कन
मंसूख़ किया दर्द का सौदा न कभी

अब किस को पता बाम पे चेहरा था कि चाँद
कोई सर उठाए हुए गुज़रा न कभी

बानू-ए-सबा ख़ाक-नशीं पर भी निगाह
नाचीज़ पे करना पड़े तकिया न कभी

परछाइयों की जंग थी ख़ूँ का दरिया
हम-ज़ाद रजज़-ख़्वाँ हुआ ऐसा न कभी

फेंक आओ ख़लाओं में शिकस्ता कश्कोल
इस बुर्ज में ठहरेगा सितारा न कभी

जब साया भी शीशे की तरह टूट गया
दीवार ने देखा ये तमाशा न कभी