बैठो याँ भी कोई पल क्या होगा
हम भी आशिक़ हैं ख़लल क्या होगा
दिल ही हो सकता है और इस के बग़ैर
जान-ए-मन दिल का बदल क्या होगा
हुस्न के नाज़ उठाने के सिवा
हम से और हुस्न-ए-अमल क्या होगा
कल का इक़रार जो मैं कर के उठा
बोला बैठ और भी चल क्या होगा
तू जो कल आने को कहता है 'नज़ीर'
तुझ को मालूम है कल क्या होगा

ग़ज़ल
बैठो याँ भी कोई पल क्या होगा
नज़ीर अकबराबादी