बैठे-बैठे इक दम से चौंकाती है
याद तिरी कब दस्तक दे कर आती है
तितली के जैसी है मेरी हर ख़्वाहिश
हाथ लगाने से पहले उड़ जाती है
मेरे सज्दे राज़ नहीं रहने वाले
उस की चौखट माथे को चमकाती है
इश्क़ में जितना बहको उतना ही अच्छा
ये गुमराही मंज़िल तक पहुँचाती है
पहली पहली बार अजब सा लगता है
धीरे धीरे आदत सी हो जाती है
तुम उस को भी समझा कर पछताओगे
वो भी मेरे ही जैसी जज़्बाती है
ग़ज़ल
बैठे-बैठे इक दम से चौंकाती है
ज़ुबैर अली ताबिश