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बहुतों ने जिसे अर्श पे बे-जान में देखा | शाही शायरी
bahuton ne jise arsh pe be-jaan mein dekha

ग़ज़ल

बहुतों ने जिसे अर्श पे बे-जान में देखा

नैन सुख

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बहुतों ने जिसे अर्श पे बे-जान में देखा
हम ने तो उसे जीते-जी इस जान में देखा

मजनूँ था हम-आग़ोश लिए लैला को अपनी
यारो ये तमाशा मैं बयाबान में देखा

जावे भी फिर आवे भी कई शक्ल से हर बार
चक्कर में कहाँ पर ये मज़ा तान में देखा

फ़ाक़ा ही रहे रोज़ न कुछ खाना न पीना
ये दौर मैं ने हज़रत-ए-रमज़ान में देखा

सब रात लड़ें टोंटे छछूंदर की लड़ाई
भौंचप्पा मैं ने छूटते शाबान में देखा

गो मेवे हज़ारों हैं और हैं ने'मतें लाखों
पर सब से सरिस हम ने मज़ा नान में देखा

हर शे'र तड़ाक़े का हर इक बात तमाशा
ऐसा तो मैं ने सौदा के दीवान में देखा

हर नफ़्स को हैरान करे सोवते जगते
इस फ़न को मैं ने हज़रत-ए-शैतान में देखा

कुछ बात कहे हँस के तो झड़ते हैं निरे फूल
लहज़ा ये तिरे इस लब-ए-ख़ंदान में देखा

हँसते ही करे देर न लड़ते ही करे देर
ये तौर तिरा तिफ़्लक-ए-नादान में देखा

गो सर्व तिरे क़द का सा मौज़ूँ तो नहीं है
पर कहने को लाचार मैं बुस्तान में देखा

जो चाह-ए-ज़नख़ बीच गिरा फीर न निकला
ऐसा तो कई बार मैं हर आन में देखा

कूचे का गया तेरे कोई फिरता नहीं है
मैं ख़ूब ही कर ग़ौर गरेबान में देखा

तुझ चश्म की तश्बीह को नर्गिस का ज़िकर क्या
सौ बार उसे मैं ने गुलिस्तान में देखा