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बहुत ही साफ़-ओ-शफ़्फ़ाफ़ आ गया तक़दीर से काग़ज़ | शाही शायरी
bahut hi saf-o-shaffaf aa gaya taqdir se kaghaz

ग़ज़ल

बहुत ही साफ़-ओ-शफ़्फ़ाफ़ आ गया तक़दीर से काग़ज़

परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़

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बहुत ही साफ़-ओ-शफ़्फ़ाफ़ आ गया तक़दीर से काग़ज़
तुम्हारे वास्ते लाया हूँ मैं कश्मीर से काग़ज़

हुआ है अबरू-ए-जानाँ से दिल-ए-बेताब सद-पारा
मुक़ाबिल हो नहीं सकता दम-ए-शमशीर से काग़ज़

अगर लोहे के गुम्बद में रखेंगे अक़रबा उन को
वहीं पहुँचाएगा आशिक़ किसी तदबीर से काग़ज़

मिरी क़िस्मत लिखी जाती थी जिस दिन मैं अगर होता
उड़ा ही लेता दस्त-ए-कातिब-ए-तक़दीर से काग़ज़

भला सादा वरक़ पर लिखता क्या रंगीं-मिज़ाजों को
मुनक़्क़श कर लिया था पहले ही तक़दीर से काग़ज़

कुछ उस ख़ुशबू की हद भी है मोअत्तर हो गया बिल्कुल
मिरे हाथों में वस्फ़-ए-गेसू-ए-शबगीर से काग़ज़

अदू का ख़त है या तावीज़ है जो यूँ है सीने पर
ये क्यूँ रक्खा गया है इज़्ज़त-ओ-तौक़ीर से काग़ज़

ख़त-ए-तक़्दीर से बेहतर मैं समझूँ इस को दुनिया में
तू लिखवा लाए गर क़ासिद बुत-ए-बे-पीर से काग़ज़

बता ज़ालिम मिरे क़ासिद ने तेरा क्या बिगाड़ा था
जो ले कर फाड़ डाला दस्त-ए-बे-तक़्सीर से काग़ज़

मिरे हाथ आ गया 'परवीं' अदू के नाम का ख़त था
गिरा था रह में जो दस्त-ए-बुत-ए-बे-पीर से काग़ज़