बहुत दिनों से मुझे तेरा इंतिज़ार है आ जा
और अब तो ख़ास वही मौसम-ए-बहार है आ जा
कहाँ ये होश कि उस्लूब-ए-ताज़ा से तुझे लिखूँ
कि रूह तेरे लिए सख़्त बे-क़रार है आ जा
गुज़र चली हैं बहुत ग़म की शोरिशें भी हदों से
मगर अभी तो तिरा सब पे इख़्तियार है आ जा
वो तेरी याद कि अब तक सुकून-ए-क़ल्ब-ए-तपाँ थी
तिरी क़सम है कि अब वो भी नागवार है आ जा
ग़ज़ल के शिकवे ग़ज़ल के मुआ'मलात जुदा हैं
मिरी ही तरह से तो भी वफ़ा-शिआ'र है आ जा
बदल रहा हो ज़माना मगर जहान-ए-तमन्ना
तिरे लिए तो अबद तक भी साज़गार है आ जा
हज़ार तरह के अफ़्कार दिल को रौंद रहे हैं
मुक़ाबले में तिरे रंज-ए-रोज़गार है आ जा
ग़ज़ल
बहुत दिनों से मुझे तेरा इंतिज़ार है आ जा
जमीलुद्दीन आली