बहुत दिनों में हम उन से जो हम-कलाम हुए
दिल-ओ-नज़र हमा-तन सज्दा-ओ-सलाम हुए
हनूज़ जैसे मसीहा की आमद आमद है
अगरचे उम्र हुई ज़िंदगी तमाम हुए
शफ़क़ सी ख़ेमा-ए-जानाँ की सम्त बाक़ी है
तमाम वादी-ओ-कोहसार ग़र्क़-ए-शाम हुए
कई गिले थे जो शोर-ए-जहाँ में डूब गए
कई सितम थे जो एहसान बन के आम हुए
किसी तरफ़ जिन्हें राह-ए-गुनाह मिल न सकी
कुछ ऐसे लोग भी दुनिया में नेक-नाम हुए
उफ़ुक़ के पार कहीं से लहू उछलता है
ज़मीं से दूर भी क्या क्या न क़त्ल-ए-आम हुए
चले थे उन से मुसीबत में हम गिला करने
कुछ और मोरिद-ए-तज़हीक-ए-ख़ास-ओ-आम हुए
रह-ए-तलब में नए रेगज़ार तक पहुँचे
वो तिश्ना-काम जो सहरा में तेज़ गाम हुए

ग़ज़ल
बहुत दिनों में हम उन से जो हम-कलाम हुए
वारिस किरमानी