बहुत दिन से कोई मंज़र बनाना चाहते हैं हम
कि जो कुछ कह नहीं सकते दिखाना चाहते हैं हम
हमारे शहर में अब हर तरफ़ वहशत बरसती है
सो अब जंगल में अपना घर बनाना चाहते हैं हम
हमें अंजाम भी मालूम है लेकिन न जाने क्यूँ
चराग़ों को हवाओं से बचाना चाहते हैं हम
न जाने क्यूँ गले में चीख़ बन जाती हैं आवाज़ें
कभी तन्हाई में जब गुनगुनाना चाहते हैं हम
कोई आसाँ नहीं सच्चाई से आँखें मिला लेना
मगर सच्चाई से आँखें मिलाना चाहते हैं हम
कभी भूले से भी अब याद भी आती नहीं जिन की
वही क़िस्से ज़माने को सुनाना चाहते हैं हम
ग़ज़ल
बहुत दिन से कोई मंज़र बनाना चाहते हैं हम
वाली आसी