बहुत अर्सा गुनहगारों में पैग़मबर नहीं रहते
कि संग-ओ-ख़िश्त की बस्ती में शीशागर नहीं रहते
अधूरी हर कहानी है यहाँ ज़ौक़-ए-तमाशा की
कभी नज़रें नहीं रहतीं कभी मंज़र नहीं रहते
बहुत महँगी पड़ेगी पासबानी तुम को ग़ैरत की
जो दस्तारें बचा लेते हैं उन के सर नहीं रहते
मुझे नादिम किया कल रात दरवाज़े ने ये कह कर
शरीफ़ इंसान घर से देर तक बाहर नहीं रहते
ख़ुद-आगाही की मंज़िल उम्र-भर उन को नहीं मिलती
जो कूचा-गर्द अपनी ज़ात के अंदर नहीं रहते
पटख़ देता है साहिल पर समुंदर मुर्दा जिस्मों को
ज़ियादा देर तक अंदर के खोट अंदर नहीं रहते
बजा है ज़ोम सूरज को भी नाज़ अपनी तमाज़त पर
हमारे शहर में भी मोम के पैकर नहीं रहते
ग़ज़ल
बहुत अर्सा गुनहगारों में पैग़मबर नहीं रहते
नाज़ ख़यालवी